मकड़ी सम
ज़िन्दगी की आपाधापी में
इंसान कदर व्यस्त हो गया है
उसका खुद का वक़्त
कहीं खो गया है
रोज़मर्रा की
जोड़ तोड़ में उलझ गया है
ज़िंदगी का गणित
ज़िन्दगी में अब पहले सी
लज़्ज़त नहीं
दिन भर की उलझनों के बीच
सिर्फ एक वक़्त ही
उसका अपना है
ऑफिस से घर तक का सफ़र
जब वह खुले छोड़ देती है
दिमाग़ के ख्याली घोड़े
सोचती है कुछ फुर्सत मिलें
बिताएंगी मनपसंद ढंग से
कुछ दिन थोड़े
पर फुर्सत के लम्हे
मिलते ही नहीं
शिक़ायत करे भी
तो किस से
वो बेचारी
अपने इर्द गिर्द
व्यस्तता के ताने बाने बुनती
खुद अपने ही जाल में
मकड़ी सम उलझी नारी/
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