इनायत है खुदा की कि वह रोज़ कोई कोई न कोई खुशी बक्श देता है, और जिस दिन भूल जाए, अपने आस पास बिखरी कोई छोटी छोटी खुशी, खुद ही अपने दामन मैं समेटने की कोशिश कर लेती हूँ या फिर यादों की पोटली खोल लेती हूँ,/ और सब से बढ़ के, आप सब की खुशी देखकर खुश हो लेती हूँ/बस जीने का यही अन्दाज़ रास आने लगा है मुझे /
Thursday, December 17, 2015
Tuesday, November 17, 2015
सब आबी आबी
सब आबी आबी
==========
जीवन छीनने लगा
खेल खलिहान
घर घरौंदे
सब आबी आबी
बरप रही बर्बादी
जल तो बहुत बरसा चुके
प्रभु! कुछ तो रहम बरसाओ
चेन्नई वासियों के लिए संवेदना की अभिव्यक्ति और राहत की दुआ करते हुए
रजनी छाबड़ा
Tuesday, September 1, 2015
सिर्फ़ अपना
सिर्फ़ अपना
========खुशियों पर अमूनन
ज़माने का पहरा होता है
गम सिर्फ अपना होता है
जब बहुत गहरा होता है
रजनी छाबड़ा
Wednesday, July 29, 2015
यह कैसा नाता है
तुमसे कैसा यह नाता है
खुशियाँ तुम्हें मिलती है
दामन मेरा भर जाता है
करवटें तुम बदलते हो
सुकून मेरा छिन जाता है
आहत तुम होते हो
आब मेरी आँखों में
उभर जाता है
तुम्हारी आँखों से
अश्क़ छलकने से पहले
अपनी पलकों में समेटने को
जी चाहता है
अठखेलियां करती
लहरों में
क्यों तेरा अक्स
नज़र आता है
खामोश फिज़ाएँ
गुनगुनाने लगती हैं
तेरा ख़याल
मुझ में रम जाता है
कानों में सुरीली
घंटियाँ सी बजती है
जब तेरी आवाज़ का
जादू छाता है
ज़िन्दगी का आधा खाली ज़ाम
आधा भरा नज़र आता है
अनाम रिश्ते को
नाम देने की कोशिश में
शब्दकोष रीत जाता है
तुम्ही कहो ना
तुमसे यह कैसा
नाता है
रजनी छाबड़ा
खुशियाँ तुम्हें मिलती है
दामन मेरा भर जाता है
करवटें तुम बदलते हो
सुकून मेरा छिन जाता है
आहत तुम होते हो
आब मेरी आँखों में
उभर जाता है
तुम्हारी आँखों से
अश्क़ छलकने से पहले
अपनी पलकों में समेटने को
जी चाहता है
अठखेलियां करती
लहरों में
क्यों तेरा अक्स
नज़र आता है
खामोश फिज़ाएँ
गुनगुनाने लगती हैं
तेरा ख़याल
मुझ में रम जाता है
कानों में सुरीली
घंटियाँ सी बजती है
जब तेरी आवाज़ का
जादू छाता है
ज़िन्दगी का आधा खाली ज़ाम
आधा भरा नज़र आता है
अनाम रिश्ते को
नाम देने की कोशिश में
शब्दकोष रीत जाता है
तुम्ही कहो ना
तुमसे यह कैसा
नाता है
रजनी छाबड़ा
यह चाहत =======
यह चाहत
यह चाहत मेरी तुम्हारी
ग़र यह हसीन सपना है
नींद खुले न कभी मेरी
गर यह हकीकत है
नींद कभी न आये मुझे
रजनी छाबड़ा
यह चाहत मेरी तुम्हारी
ग़र यह हसीन सपना है
नींद खुले न कभी मेरी
गर यह हकीकत है
नींद कभी न आये मुझे
रजनी छाबड़ा
फूल और कलियाँ
फूल और कलियाँ
एक भी पल के लिए,ओ बागवान
अपने खून पसीने से सींची कली को
एक भी पल के लिए,ओ बागवान
अपने खून पसीने से सींची कली को
न आँख से ओझल होने देना
एह्साह भी न हुआ ही जिसे कभी
तेज़ हवाओं के चलन का
घिर जाये,अचानक किसी बड़े तूफ़ान में
अंदाज़ लगा सकोगे क्या, उसकी चुभन का
फूल बनने से पहले ही
रौंद दी जाती है कली
यह कैसा चलन हुआ
आज के चमन का
आदम और हवा के
वर्जित फल खाने के कहानी का
जब जब होगा दोहरान
आधुनिक पीड़ी चढ़ती जायेगी
बर्बरता की एक और सोपान
और चमन, यूं ही
बनते जायेंगे वीराने
फूल और कलियों के जीवन
रह जाएंगे, बन कर अफ़साने
बहुत भारी मन से ११ वर्ष पूर्व लिखी गयी अपनी कविता आज फिर से शेयर कर रही हूँ/
रजनी छाबड़ा
बहुत भारी मन से ११ वर्ष पूर्व लिखी गयी अपनी कविता आज फिर से शेयर कर रही हूँ/
रजनी छाबड़ा
Saturday, July 11, 2015
ज़िन्दगी की किताब से
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ज़िन्दगी की किताब से
फट जाता है जब
कोई अहम पन्ना
अधूरी रह जाती है
जीने की तमन्ना
कभ कभी बागबान से
हो जाती है नादानी
तोड़ देता है ऐसे फूल को
जिसके टूटने से
सिर्फ शाख ही नहीं
छा जाती है
सारे चमन में वीरानी
रह जाता है मुरझाया पौधा
सीने में छुपाये
दर्द की कहानी
जिस पौध को पानी की बजाए
सींचना पड़ता हो
अश्कों ओर नए खून से
उस दर्द के पौधे का
अंजाम क्या होगा
अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बड़ते कदमों की
आहट से डर
जीने की राह से मुँँह
मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस
गिने चुने पलों को
जी भर जीने का मोह
पल पल में
सदियाँ जी लेने की चाह
ज़िन्दगी में भर देता
इतनी महक सब ओर
विश्वास ही नहीं होता
कैसे टूट जाएगी यह डोर
दर्द के पौधे पर
अपनेपन के फूल खिलते हैं
यह फूल रहें या न रहें
इनकी यादों की खुशबू से
चमन महकते हैं
कैंसर रोगियों को समर्पित कविता
रजनी छाबड़ा
Wednesday, June 10, 2015
सपने हसीन क्यों होते हैं
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स्नेह,दुलार,प्रीत
मिलन,समर्पण
आस, विश्वास के
सतरंगी
ताने बाने से बुने
सपने इस कदर
हसीन क्यों होते हैं
कभी मिल जाते हैं
नींद को पंख
कभी आ जाती है
पंखों को नींद
हम सोते में जागते
और जागते में सोते हैं
सपने इस कदर
हसीन क्यों होते हैं
बे नूर आँखों में
नूर जगाते
उदास लबों पर
मुस्कान खिलाते
मायूस सी ज़िंदगी को
ज़िंदगी का साज सुनाते
सपने इस कदर
हसीन क्यों होते है
कल्पना के पंख पसारे
जी लेते हैं कुछ पल
इनके सहारे
अँधेरे के आखिरी छोर पर
कौंधती बिजली से यह सपने
इस कदर हसीन
क्यों होते हैं
जिस पल मेरे सपनों पर
लग जायेगा पूर्ण विराम
मेरी ज़िंदगी के चरखे को भी
मिल जायेगा अनंत विश्राम
Sunday, June 7, 2015
क्या जानें
क्या जानें
बिखरे हैं आसमान मैं
ऊन सरीखे ,
बादलों के गोले
क्या जाने,आज ख़ुदा
किस उधेढ़ बुन में है/
रजनी छाबड़ा
बिखरे हैं आसमान मैं
ऊन सरीखे ,
बादलों के गोले
क्या जाने,आज ख़ुदा
किस उधेढ़ बुन में है/
रजनी छाबड़ा
Friday, June 5, 2015
कहाँ गए
कहाँ गए
कहाँ गए सुनहरे दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव मैं
कोयल कूकती थी
अमराइयों मैं
सुकून था गावँ में
कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी
शुद्ध हवा मैं सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी
रजनी छाबड़ा
कहाँ गए सुनहरे दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव मैं
कोयल कूकती थी
अमराइयों मैं
सुकून था गावँ में
कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी
शुद्ध हवा मैं सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी
रजनी छाबड़ा
Tuesday, June 2, 2015
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
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हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं
उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं
सुनहली धूप से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते हैं
चाहते हैं ज़िन्दगी में दरिया सी रवानी
और अश्क आँखों में जज़्ब किये जाते हैं
चाहते हैं जीत लें ज़िन्दगी की दौड़
और बैसाखियों के सहारे चले जाते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमकश में
ज़िंदगी जिए जाते हैं
हम खुद नहीं जानते
हम ज़िन्दगी से क्या चाहते हैं
रजनी छाबड़ा
Wednesday, May 27, 2015
बेआब
बेआब
ग़र रोने से ही
बदल सकती तक़दीर
यह ज़मीन बस
सैलाब होती
गर अश्क़ बहाने से ही
होती हर ग़म की तदबीर
यह नम आँखें
कभी बेआब न होती
ग़र रोने से ही
बदल सकती तक़दीर
यह ज़मीन बस
सैलाब होती
गर अश्क़ बहाने से ही
होती हर ग़म की तदबीर
यह नम आँखें
कभी बेआब न होती
Saturday, May 9, 2015
क्या तुम सुन रही हो,माँ
क्या तुम सुन रही हो, माँ
*************************
माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो
अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी
सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी
मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
क्या तुम सुन रही हो, माँ
रजनी छाबड़ा
*************************
माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो
अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी
सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी
मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
क्या तुम सुन रही हो, माँ
रजनी छाबड़ा
Saturday, March 7, 2015
Thursday, February 19, 2015
FOSSILS
फासिल्स
=========
मृग मरीचिका में
पहचान तलाशती
आज की युवा पीढ़ी
दिशा भ्रमित होती
रेत के सैलाब सी भटकती
क्या कभी कदमों के निशान छोड़ पायेगी
जिन पर चल कर ,आने वाली पीढ़ियाँ
मंजिलों के सुराग पाएंगी
कल्पना के पंख लगाये, वे उड़ना चाहते है
सपनों के सुनहले गगन में
टी वी ,साइबर, डिस्को की जेनरेशन
चाहती है ज़िन्दगी में थ्रिल और सेंसेशन
चंचल ,मचलते दिलों को अखरती है
बुजुर्गों की झील से गहरी स्थिरता
होती है कभी कभी बेहद कोफ़्त
जब उनकी बेरोक आज़ादी पर
लगायी जाती है, बुजुर्गों द्वारा टोक
उनकी नज़रों में, बुजुर्ग हैं फासिल्स जैसे
जिन पर कोई क्रिया,कोई प्रतिक्रिया नहीं होती
लाख बदलें, ज़माने के मौसम
उनके लिए कोई फिज़ा
कोई खिज़ा नहीं होती
वक़्त और समाज की चट्टान के बीच दबते
अपनी संवेदनाओं का दमन करते
परत दर परत, ख़ामोशी के भार से दबते
संस्कारों की वेदी पर, निज इच्छाओं की बलि देते
आजीवन मौन तपस्या करते
धीमे धीमे हो गए वे जड़वत फासिल्स जैसे
नयी पीढ़ी भले ही इन्हें नाम दे
सड़ी गली मान्यताओं के
बोझ तले दबे फासिल्स का
पर यही फासिल्स हैं सबूत इस सच का
कि इन्ही से मानवता जीवित है
यह मानवता के अवशेष नहीं
यह हैं उन मंजिलों के सुराग
जिनका अनुकरण कर
सभ्यता के कगार पर खड़ी
आधुनिक पीढ़ी पा सकती है
संस्कारों के भण्डार
फासिल्स के अस्तित्व से अनजान
अरस्तू ने,यूं की थी
फासिल्स की पहचान
'यही वे सांचे हैं, जिनमें
खुदा ने ज़िंदगी को ढाला है '
सभ्यता और संस्कारों की
गहरी जड़ें फैलाएं
यह फासिल्स ही
सही कुदरत ने इन्हें
बड़े नाज़ों से संभाला है
=======================================================================
कल शाम विश्व पुस्तक मेले मैं अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित फेसबुक कवियों की रचनाओं के संकलन 'अनवरत ' का लोकार्पण हुआ, इसी संग्रह मैं प्रकाशित मेरी कविता 'फ़ॉसिल्स आपके अवलोकन हेतु
रजनी छाबड़ा
=========
मृग मरीचिका में
पहचान तलाशती
आज की युवा पीढ़ी
दिशा भ्रमित होती
रेत के सैलाब सी भटकती
क्या कभी कदमों के निशान छोड़ पायेगी
जिन पर चल कर ,आने वाली पीढ़ियाँ
मंजिलों के सुराग पाएंगी
कल्पना के पंख लगाये, वे उड़ना चाहते है
सपनों के सुनहले गगन में
टी वी ,साइबर, डिस्को की जेनरेशन
चाहती है ज़िन्दगी में थ्रिल और सेंसेशन
चंचल ,मचलते दिलों को अखरती है
बुजुर्गों की झील से गहरी स्थिरता
होती है कभी कभी बेहद कोफ़्त
जब उनकी बेरोक आज़ादी पर
लगायी जाती है, बुजुर्गों द्वारा टोक
उनकी नज़रों में, बुजुर्ग हैं फासिल्स जैसे
जिन पर कोई क्रिया,कोई प्रतिक्रिया नहीं होती
लाख बदलें, ज़माने के मौसम
उनके लिए कोई फिज़ा
कोई खिज़ा नहीं होती
वक़्त और समाज की चट्टान के बीच दबते
अपनी संवेदनाओं का दमन करते
परत दर परत, ख़ामोशी के भार से दबते
संस्कारों की वेदी पर, निज इच्छाओं की बलि देते
आजीवन मौन तपस्या करते
धीमे धीमे हो गए वे जड़वत फासिल्स जैसे
नयी पीढ़ी भले ही इन्हें नाम दे
सड़ी गली मान्यताओं के
बोझ तले दबे फासिल्स का
पर यही फासिल्स हैं सबूत इस सच का
कि इन्ही से मानवता जीवित है
यह मानवता के अवशेष नहीं
यह हैं उन मंजिलों के सुराग
जिनका अनुकरण कर
सभ्यता के कगार पर खड़ी
आधुनिक पीढ़ी पा सकती है
संस्कारों के भण्डार
फासिल्स के अस्तित्व से अनजान
अरस्तू ने,यूं की थी
फासिल्स की पहचान
'यही वे सांचे हैं, जिनमें
खुदा ने ज़िंदगी को ढाला है '
सभ्यता और संस्कारों की
गहरी जड़ें फैलाएं
यह फासिल्स ही
सही कुदरत ने इन्हें
बड़े नाज़ों से संभाला है
=======================================================================
कल शाम विश्व पुस्तक मेले मैं अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित फेसबुक कवियों की रचनाओं के संकलन 'अनवरत ' का लोकार्पण हुआ, इसी संग्रह मैं प्रकाशित मेरी कविता 'फ़ॉसिल्स आपके अवलोकन हेतु
रजनी छाबड़ा
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