मुक़्क़मल थीवण तुं क्यूँ डरदी हां मैं / पूर्णता से क्यों डरती हूँ मैं ( सिराइकी और हिंदी में मेरी कविता )
मुक़्क़मल थीवण तुं क्यूँ डरदी हां मैं /
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मुक़्क़मल थीवण तुं
क्यूँ डरदी हां मैं
शायद हिक वजह नाल
क्योंकि वेखदी रई हां कि
पुण्या दा चद्रमा
सारी दुनिया कुं
चांदनी नाल सरोबार करण तुं बाद
नहीं रेवन्दा पूरा
हौले हौले अंधेरी रातां दी तरफ़
सरकदा वैंदा हे
भरे-पुरे ख़ुशी दे पलां दे बाद
मैडी खुशियां दा चंद्रमा
मदरे मदरे
क्या वधण लगसी
मसया दी तरफ़
उदास हनेरी रातां दे बाद
चानण वापस आसी
जिवें अमावस तुं बाद
चंद्रमा दुबारा हौले हौले
चांदनी कुं आपणे वेच समेटदा हे
वडणा घटणा
एह सिलसिला
ईवेन ही चलदा हे/
पूर्णता से क्यों डरती हूँ मैं
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पूर्णता से क्यों डरती हूँ मैं ?
शायद इस लिए कि
देखती आयी हूँ
पूनम का चाँद
सकल विश्व को
चांदनी से सरोबार करने के बाद
पूर्णता खोने लगता है
धीमे -धीमे अंधियारी रातों की ओर
सरकने लगता है
भरपूर खुशी के लम्हों के बाद
मेरी खुशियों का चाँद भी
धीमे -धीमे
क्या अमावस की ओर
अग्रसर होने लगेगा ?
उदास अधियारी रातों के बाद
उजास वापिस आएगा
जैसे कि अमावस के बाद
चाँद वापिस धीमे धीमे
चांदनी को
आग़ोश में समेटता है
बढ़ना, घटना
यह सिलसिला
यूं ही चलता है/
रजनी छाबड़ा
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