Tuesday, December 18, 2012

क्या फूल ,क्या कलियाँ

यह कविता 10/4/2007 को लिखी थी और आज बहुत भारी मन से आप सब के साथ फिर से शेयर कर रही हूँ/


क्या फूल ,क्या कलियाँ
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फिजाओं के रंग
क्यों होने लगे बदरंग

क्या फूल,क्या कलियाँ
ऐय्याशों  के लिए
सभी रंगरलियाँ
किल्क्कारियाँ  बन गयी
सिसकारियाँ
अवाक इंसान
अवाक  भगवान्

हैवानियत की देख हद
निगाहें दंग ,ज़िंदगी परेशान
घर घरोंदे ,रहें,गुलशन
सब बन जायेंगे बियाबान

शर्म ओ हया के
सब परदे तार तार
ज़िन्दगी को
 बना दिया व्यापार
अस्मत लूटने मैं भी
होने लगी सांझेदारी
समाज मैं पनपने लगे
यह कैसे व्यापारी

आहत मन,आहत तन
दरिंदगी की हो रही इन्तहा
क्या औरत होना ही
 हुआ गुनाह ?

देवियों के देश का
क्यों कर बदला  परिवेश
शालीन्ता, मर्यादा की
उड़ती धज्जियां
कयामत से पहले
हुए कयामत
फार्म हाउस ,गाँव ,शहर
टूट रहा हर सू क़हर

सुप्त समाज
तुम फिर से जाग जाओ
चेतो और चेताओ
सभ्य ,सचेत
सावधान रखो निगाहें तुम्हारी
बनो मर्यादा के प्रहरी
फिर न उभरने पाए कोई दिल्ली 
धौलपुर,नसीराबाद या निठारी /

रजनी छाबडा


खेद है की यह  शहरों की फेरहिस्त बढ़ते बढ़ते राजधानी तक पहुँच चुकी हैं


रजनी छाबड़ा


Monday, December 17, 2012

निखरी क़ायनात

निखरी क़ायनात

ओस मैं
 नहाने के बाद
शबनमी धूप मैं
अधखिली कलि
जब अपना चेहरा
सुखाती है

कायनात
निखरी निखरी
नज़र आती है


रजनी छाबड़ा 

Tuesday, November 6, 2012

JYOTI

ज्योति


है जिनके जीवन का
 हर दिन रात जैसा
और हर रात
अमावस सी काली
क्या तुम उनकी बनोगे दीवाली

वो महसूस कर सकते हैं
मंद मंद चलती बयार
पर नही जानते
क्या होती है बहार
नही जानते वो
बहारों के रंग
कैसे करती तितलियाँ
अठखेलियाँ
फूलों के संग
क्या होते हैं इन्द्रधुनुष के रंग
अपनी आंखों से
 दुनिया देखने की उमंग

बाद अपने क्या तुम दोगे
उन्हें हसीन  सपने
देख सकेंगे वो
दुनिया तुम्हारी आंखों से
न रहेगी उनकी दुनिया काली
उजाला ही
उजाला
हर  दिन खुशहाली
हर रात उनकी दीवाली

Friday, August 17, 2012

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Friday, July 27, 2012

kya shiqwa karen gairon se







क्या शिकवा करें गैरों से
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काश! अपना कह देने भर से

बेगाने अपने होते,तो

अनजान शहर मैं भी

अजनबी लोगों से घिरे

आँखों मैं खुशनुमा सपने होते

क्या शिकवा करें गैरों से

अक्सर ,अपने ही शहर मे,

अपने अपने नहीं होते

अक्सर अपने बेगानों सा

मिला करते है,

"क्यों खफा रहते है

आप हमसे"

उस पर ,यह गिला करते हैं

अब कहाँ जाये

यह बेचारा दिल

तन्हाई का मारा दिल

















Thursday, July 19, 2012

मन तरसता है

मन तरसता  है

याद आता  है  बरबस
वो रूठना, मनाना
वो तकरार
कितना प्यारा अंदाज़ था
प्यार का

मिल रहा सब से
स्नेह और दुलार

फिर भी मन तरसता  है 
उस तकरार को 

Saturday, July 14, 2012

फूल और कलियाँ

फूल और कलियाँ
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एक भी पल के लिए,ओ बागवान
अपने खून पसीने से सींची कली को
न आँख से ओझल होने देना
एह्साह भी न हुआ ही जिसे कभी
तेज़ हवाओं के चलन का
घिर जाये,अचानक किसी बड़े तूफ़ान मैं
अंदाज़ लगा सकोगे क्या,उसकी चुभन का
फूल बनने से पहले ही
रौंद दी जाती है कली
यह कैसा चलन हुआ 
आज के चमन का
आदम और हवा के
वर्जित फल खाने के कहानी का
जब जब होगा दोहरान
आधुनिक पीड़ी चढ़ती  जायेगी
बर्बरता की एक और सोपान 
और चमन ,यूं ही
बनते जायेंगे वीराने
फूल और कलियों के जीवन 
रह जायेंगे बन कर अफसाने