Friday, June 5, 2015

कहाँ गए

कहाँ गए

कहाँ गए सुनहरे  दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव  मैं

कोयल कूकती थी
अमराइयों मैं
सुकून था गावँ में


कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी

शुद्ध हवा मैं सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी

रजनी छाबड़ा

Tuesday, June 2, 2015

हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
-----------------------
हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं

उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं

सुनहली धूप  से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं

चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते हैं

चाहते हैं ज़िन्दगी में दरिया सी रवानी
और अश्क आँखों में जज़्ब किये जाते हैं

चाहते हैं जीत लें ज़िन्दगी की दौड़ 
और बैसाखियों के सहारे चले जाते हैं

कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमकश में
ज़िंदगी जिए जाते हैं

हम खुद नहीं जानते
हम ज़िन्दगी से क्या चाहते हैं


रजनी छाबड़ा 

Wednesday, May 27, 2015

बेआब

बेआब

ग़र रोने  से ही
बदल सकती तक़दीर
यह ज़मीन बस
सैलाब होती

गर अश्क़ बहाने से ही
होती हर ग़म की तदबीर
यह नम आँखें
कभी बेआब न होती




Saturday, May 9, 2015

क्या तुम सुन रही हो,माँ

क्या तुम सुन रही हो, माँ
*************************
माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो


अब मुखर हुई हूँ,
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा है तुमसे
यूं ही बढ़ते  रहने दूंगी


सारी कायनात में तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी


मेरा मौन अब
स्वरित हो गया है/
क्या तुम सुन रही हो, माँ

रजनी छाबड़ा

Saturday, March 7, 2015

आज की नारी
=========

आज की नारी 
अबला नहीं 
जो विषम परिस्थितियों मैं 
टूटी माला के मोतियों सी 
बिखर जाती है 

आज की नारी सबला है,
जिसे टूट कर भी 
जुड़ने और जोड़ने  की
कला आती है

Thursday, February 19, 2015

FOSSILS

                       फासिल्स
                    =========
मृग मरीचिका में 
पहचान तलाशती
आज की युवा पीढ़ी
दिशा भ्रमित होती
रेत के सैलाब सी भटकती
क्या कभी कदमों के निशान छोड़ पायेगी
जिन पर चल कर ,आने वाली पीढ़ियाँ
मंजिलों के सुराग पाएंगी

कल्पना के पंख लगाये, वे उड़ना चाहते है
सपनों के सुनहले गगन में 
टी वी ,साइबर, डिस्को की जेनरेशन
चाहती है ज़िन्दगी में थ्रिल और सेंसेशन

चंचल ,मचलते दिलों को अखरती है
बुजुर्गों की झील से गहरी स्थिरता
होती है कभी कभी बेहद कोफ़्त
जब उनकी बेरोक आज़ादी पर
लगायी जाती है, बुजुर्गों द्वारा टोक

उनकी नज़रों में, बुजुर्ग हैं फासिल्स जैसे
जिन पर कोई क्रिया,कोई प्रतिक्रिया नहीं होती
लाख बदलें, ज़माने के मौसम
उनके लिए कोई फिज़ा
कोई खिज़ा नहीं होती

वक़्त और समाज की चट्टान के बीच  दबते
अपनी संवेदनाओं का दमन करते
परत दर परत, ख़ामोशी के भार से दबते
संस्कारों की वेदी पर, निज इच्छाओं की बलि देते
आजीवन मौन तपस्या करते
धीमे धीमे हो गए वे जड़वत फासिल्स जैसे

नयी पीढ़ी भले ही इन्हें नाम दे
सड़ी गली मान्यताओं के
बोझ तले दबे फासिल्स का
पर यही फासिल्स हैं सबूत  इस सच का
कि इन्ही से मानवता जीवित है

यह मानवता के अवशेष नहीं
यह हैं उन मंजिलों के सुराग
जिनका अनुकरण कर
सभ्यता के कगार पर खड़ी
आधुनिक पीढ़ी  पा सकती है
संस्कारों के भण्डार

फासिल्स  के अस्तित्व से अनजान
अरस्तू ने,यूं की थी
फासिल्स की पहचान
'यही वे सांचे हैं, जिनमें
खुदा ने ज़िंदगी को ढाला है '

सभ्यता और संस्कारों की
गहरी जड़ें फैलाएं
यह फासिल्स ही
सही कुदरत ने इन्हें
बड़े नाज़ों से संभाला है
=======================================================================
कल शाम विश्व पुस्तक मेले मैं अयन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित फेसबुक कवियों की रचनाओं के संकलन 'अनवरत ' का  लोकार्पण हुआ, इसी संग्रह मैं प्रकाशित मेरी कविता 'फ़ॉसिल्स आपके अवलोकन हेतु
रजनी छाबड़ा 

Thursday, December 11, 2014

नासूर

नासूर

मन और् आँखों
 के बीच
गहरा  रिश्ता है

मन का नासूर
आँखों से
अश्क बन
रिसता है/

रजनी छाबड़ा