प्यार और अपनत्व
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माँ तो बस माँ ही होती है
प्यार और अपनत्व की मूर्ति
दुनिया की कोई भी सम्पदा
नहीं कर सकती उसकी पूर्ति
सुर्ख़ उनींदी आँखों से जब
शिशु मचल रहा हो
ले रहा हो करवटें
आप बाँसुरी की
अवरिल धुन सुना के
या मद्धम मद्धम सुर सजा के
कोशिश कर सकते हैं
उसे सुलाने की
परन्तु थपकियाँ देकर
लोरी गुनगुनाते हुए
अपने वक्ष पर शिशु का
सर टिका कर
उसके बालों को हौले हौले सहलाती
माँ के वात्सल्य की गरिमा
का नहीं है कोई सानी
आधुनिकीकरण के इस दौर में
रोबॉट नहीं बन सकता
मानवीय संवेदनाओं का
पूरक या विकल्प
यही संवेदनायें हमारा गौरव
निज की पहचान
मानवता की शान/
रजनी छाबड़ा
बहु भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका
बहुत सुंदर, भावनासिक्त कविता है
ReplyDeleteAbhaar, Anju Ji, kavita kee thaah tak.pahunchane ke.liye
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