सिमटते पँख
पर्वत, सागर, अट्टालिकाएं
अनदेखी कर सब बाधाएं
उन्मुक्त उड़ने की चाह को
आ गया है
खुद बखुद ठहराव
रुकना ही न जो जानते थे कभी
बँधे बँधे से चलते हैं वहीँ पाँव
उम्र का आ गया है ऐसा पड़ाव
सपनों को लगने लगा है विराम
सिमटने लगे हैं पँख
नहीं लुभाते अब नए आयाम
बँधी बँधी रफ़्तार से
बेमज़ा है ज़िंदगी का सफर
अनकहे शब्दों को
क्यों न आस की कहानी दे दें
रुके रुके क़दमों को
फिर कोई रवानी दे दें /
कहाँ गए सुनहरे दिन
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कहाँ गए सुनहरे दिन
जब बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाँव में
कोयल कूकती थी
अमराइयों में
सुकून था गावँ में
कहाँ गए संजीवनी दिन
जब नदियां स्वच्छ शीतल
जलदायिनी थी
शुद्ध हवा में सांस लेते थे हम
हवा ऊर्जा वाहिनी थी /
रजनी छाबड़ा
बहुभाषीय कवयित्री व् अनुवादिका
टावर 6 A , 1601
वैली व्यू एस्टेट
ग्वाल पहाड़ी
गुरुग्राम फरीदाबाद हाईवे
गुरुग्राम -122003