Monday, June 4, 2012

kahan gaye wo din

कहाँ गए वो दिन
जब नदियाँ
शुद्ध जल दायिनी थी
सुवासित बयार
मन भावनी थी
कहाँ गए वो दिन जब
 कोयल कूकती थी अमराइयों में
बटोही सुस्ताया करते थे
पेड़ों की शीतल छाया में 

ANK JYOTISH 5/6/2012

Sunday, June 3, 2012

CHAHAT

चाहत
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गर चाहत
एक गुनाह है
तो क्यों झुकता है
आसमान धरती पर
क्यों घूमती है धरती
सूरज के गिर्द

Saturday, May 12, 2012

KYA TUM SUN RHEE HO ,MAA


क्या तुम सुन रही हो,माँ
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माँ, तुम अक्सर कहा करती थी
बबली, इतनी खामोश क्यों हो
कुछ तो बोला करो
मन के दरवाज़े पर दस्तक दो
शब्दों की आहट से खोला करो

अब मुखर हुई हूँ
तुम ही नहीं सुनने के लिए
विचारों का जो कारवां
तुम मेरे ज़हन में छोड़ गयी
वादा  है तुमसे
यूं ही बढ़ते रहने दूंगी

सारी कायनात में 
तुम्हारी झलक देख
सरल शब्दों की अभिव्यक्ति को
निर्मल सरिता सा
यूं ही बहने दूंगी

मेरा मौन अब स्वरित
हो गया है, माँ
क्या तुम सुन रही हो?


PRSHN CHINH


प्रश्न चिन्ह
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माँ
तेरी  कोख मैं ,सिमटी सिकुची
अपने अस्तित्व पर लगे
प्रश्न  चिन्ह से परेशान
पूछती हूँ,तुझ से एक सवाल

मैं बेटी हूँ
तो क्या अवांछित हो गयी
क्या बेटा जनमने से ही
गर्वित होती तुम?

मैं हूँ तेरा ही एक अंश
मुझे खुद से जुदा करने का ख्याल
क्या नहीं करेगा तुम्हे आहत
नहीं देगा तुम्हे मलाल?

महकते गुलाब सी गर
न बन पाऊँ,तेरे आंगन की शान
निर्मली सी बनूंगी,
तेरे आंगन  की आन

धूप छाँव
सहजता से झेलते
न आयेगी माथे पर शिकन
न करूंगी तुझे परेशान

गर मैं ही न रहूँगी
कौन कर पायेगा
भाई बहन के रिश्ते पर गर्व
बिन मेरे,कैसे मन पायेगा
भैया दूज और राखी का पर्व

कैसे होगा धरा पर
सरस्वती ,दुर्गा और
लक्ष्मी का अवतरण
बिन कन्या,कैसे होगा वरण


कोख की अजन्मी अंश के
प्रश्नों से आहत
माँ ने दी उसे दिलासा
निज आश्वासन से दी राहत

हाँ,मेरी अजन्मी अंश
वाकिफ हूँ,तेरी धडकन
तेरी करवट ,
तेरे स्पंदन से

माँ  हूँ तेरी
तुझे जनम देना,मेरा धर्म
जानती हूँ,जीवन का
बस एक ही मर्म

निज लहू से सीँचे
बेटा हो या बेटी
माँ  के लिए
दोनों एक समान

स्वस्थ,सुरक्षित जीवन
मिले तुझे,यही मेरा अरमान
सर्जन ,शक्ति ,उर्जा और
ममत्व का अवतार
तू पनपे ,अपनत्व की छावं मैं
मैं बनी रहूँ ,तेरा आधार
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Sunday, April 29, 2012

क्या शहर ,क्या गाँव

क्या शहर ,क्या गाँव

मेरे लिए
क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी
नहीं ममता की छाँव
गाँव में ,भाई को
मेरी देख रख में  डाल
माँ जाती, भोर से
खेती की करने
सार सम्भाल
शहर में, बड़ा भाई
जाता है कारखाने
गृहस्थी का बोझ बंटाने
खुद को काम में खपाने
कच्ची उम्र  की मजबूरी
काम पूरा, मजदूरी मिलती अधूरी
हाथ में कलम पकड़ने की उम्र में
बनाता है, कारखाने में बीड़ी
बाल श्रम का यह रोग
पहुँचता जाएगा
पीढ़ी दर पीढ़ी
छोटे भाई की देख रख का
नहीं हैं मलाल
पर मेरे लिए,जाने कब
आयेगा वह साल
जब मैं भी
जा सकूंगी स्कूल
ज़िंदगी की चक्की  से
गर दो घंटे भी
फुर्सत पाऊँ
खुद पढ़ूं , साथ में
छोटे भैया को भी पढ़ाऊँ
कुछ कर गुजरने की चाह
मन में संवारती
छोटे भाई को दुलारती
गीली लकड़ियाँ सुलगाती
रांधती हूँ दाल भात
माँ वापिस आती,थकी हारी
लिए शिथिल गात
दिन भर  की थकान से पस्त
सो जाती, बिन किये कोई बात
ममता के दो बोल को तरसता
जीवन मेरा, मेरे जीवन का नाम अभाव
मेरे लिए क्या शहर ,क्या गाँव
जीवन तपती दुपहरी, नहीं ममता की छाँव

रजनी छाबड़ा









Monday, March 12, 2012

इन्द्रधनुष


इन्द्रधनुष

मेरी
ज़िन्दगी के आकाश पे
इन्द्रधनुष   सा
उभरे तुम


नील गगन सा विस्तृत
तुम्हारा प्रेम
तन मन को पुलकित
हरा भरा  कर देता
खरे सोने सा सच्चा
तुम्हारा प्रेम
जीवन में  
खुशियों के
रंग भर  देता
तुम्हारे
स्नेह की
पीली ,सुनहली
धूप में 
नारंगी सपनों का
ताना बाना बुनते
संग तुम्हारे पाया
जीवन में 
प्रेम की लालिमा
सा विस्तार
इन्द्रधनुषी 
सपनो से
सजा
संवरा
अपना संसार

बाद
तुम्हारे
इन्द्रधनुष  के और
रंग खो गए
बस, बैंजनी विषाद
की छाया
दूनी है
बिन तेरे ,मेरी ज़िन्दगी
सूनी सूनी है

रजनी छाबड़ा