सांझ का धुंधलका
सघन
सागेर की लहरें
और
हिचकोले लेता
तन मन
संग तुम्हारे
महसूस किया
मन ने
सागर मैं
saagar sa vistaar
असीम खुशियाँ
अनंत
प्यार
वक्त के
बेरहम
सफर
मैं
तुम, ज़िन्दगी की
सरहद
के
उस पार
सांझ के तारे
मैं
करती हूँ
तुम्हारा
दीदार
सागर आज भी वही है
वही है
सांझ का धुंधलका
सघन
हलचल नही है
लहरों
मैं
सतह लगती है
ठहरा सागर
गहरा मन
रवां
है
मन के
ashant
vicharon
ka manthan
Monday, August 10, 2009
नजरिया
ज़िन्दगी के फिसलते लमहे
आँचल मैं न
समेत पाने की कसक
बदला नज़र आता है
वक्त का नजरिया
पूरे गिलास मैं सिमटा
आधा पानी
मन की तरंग मे दिखता
आधा भेरा
रीते लम्हों में
आधा खाली
आँचल मैं न
समेत पाने की कसक
बदला नज़र आता है
वक्त का नजरिया
पूरे गिलास मैं सिमटा
आधा पानी
मन की तरंग मे दिखता
आधा भेरा
रीते लम्हों में
आधा खाली
होने से,न होने तक
होने से
न होने
तक का
अन्तराल
गहरे समेटे
अपरिमित सवाल
वापिस ही
ले लेना है
तब देते ही
क्यों हो
न मिली होती
फिरदौस
न कचोटता
लुटने का
एहसास
न होने
तक का
अन्तराल
गहरे समेटे
अपरिमित सवाल
वापिस ही
ले लेना है
तब देते ही
क्यों हो
न मिली होती
फिरदौस
न कचोटता
लुटने का
एहसास
Saturday, August 8, 2009
मन विहग
आकुल निगाहें
बेकल राहें
विलुप्त होता
अंनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरामैं सावनी
बयार
नेह मेह
का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का
छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का धरातल
बेकल राहें
विलुप्त होता
अंनुपथ
क्षितिज
छूने की आस
अतृप्त प्यास
तपती मरुधरामैं सावनी
बयार
नेह मेह
का बरसना
ज़िन्दगी का सरसना
भ्रामक स्वप्न
खुली आँख का
छल
मन विहग के
पर कतरना
यही
यथार्थ का धरातल
कैसा गिला
सुर्ख उनीदीं ऑंखें
पिछली रात की
करवटें
रतजगा
न ख़तम होने वाला
सिलसिला
विरहन का
यही
अमावसी
नसीब
किस से
शिकवा
कैसा
गिला
पिछली रात की
करवटें
रतजगा
न ख़तम होने वाला
सिलसिला
विरहन का
यही
अमावसी
नसीब
किस से
शिकवा
कैसा
गिला
झरोखे से
मन के बंद
अंधेरे कमरे में
तेरी यादों के झरोखे से
जब धूप छनी किरणे
आती हैं
दो पल को ही सही
अंधेरे में उजाले का
भरम जगा जाती हैं
रजनी छाबड़ा
अंधेरे कमरे में
तेरी यादों के झरोखे से
जब धूप छनी किरणे
आती हैं
दो पल को ही सही
अंधेरे में उजाले का
भरम जगा जाती हैं
रजनी छाबड़ा
संदली एहसास
फिजाओं मैं
फैली हुई
पनीली हवाओं से तुम
नज़र नही आते
बयार से
नेह बरसाते
धेरती का दामन
नही छु पाते
अनछुए
स्पर्ष से
तुम अपने होने का
संदली एहसास
दिला जाते
फैली हुई
पनीली हवाओं से तुम
नज़र नही आते
बयार से
नेह बरसाते
धेरती का दामन
नही छु पाते
अनछुए
स्पर्ष से
तुम अपने होने का
संदली एहसास
दिला जाते
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