Friday, May 28, 2010

ज़रा सोच लो

ज़रा सोच लो
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दूसरों को ठोकरें मारने वालो
ज़रा सोच लो एक पल को
पराये दर्द का एहसास
तुम्हे भी सालेगा तब
ज़ख़्मी हो जायेंगे
तुम्हारे ही पाँव जब
दूसरों को ठोकरें मारते मारते




रजनी छाबड़ा 

Saturday, May 15, 2010

mn ki patang

मन की पतंग


पतंग सा शोख मन
लिए चंचलता अपार
छूना चाहता है
पूरे नभ का विस्तार
पर्वत, सागर, अट्टालिकाएं
अनदेखी कर
सब बाधाएं
पग आगे ही आगे बढाएं

ज़िंदगी की थकान को
दूर करने के चाहिए
मन की पतंग
और सपनो का आस्मां
जिसमे मन भर  सके
बेहिचक, सतरंगी उड़ान

पर क्यों थमाएं डोर
पराये हाथों में 
हर पल खौफ
रहे मन में 
जाने कब कट जाएँ
कब लुट जाएँ

चंचलता, चपलता
लिए देखे मन
ज़िन्दगी के आईने
पर सच के धरातल
पर टिके कदम ही
देते ज़िंदगी को मायने


रजनी छाबड़ा 

Sunday, March 21, 2010

maa

ज़िन्दगी और

मौत के बीच

zindagi से lachaar

से पड़ी थी तुम

मन ही मन तब चाहा था मैंने

की आज तक तुम मेरी माँ थी

आज मेरी बेटी बन जाओ

अपने आँचल की छाओं मैं

लेकर करूं तुम्हारा दुलार

अनगिनत

mannaten

खुदा से कर

मांगी थी तुम्हारी जान की खैर




बरसों तुमने मुझे

पाला पोसा और संवारा

सुख सुविधा ने

जब कभी भी किया

मुझ से किनारा

रातों के नींद

दिन का चैन

सभी कुछ मुझ पे वारा

मेरी आँखों मैं गेर कभी

दो आँसू भी उभरे

अपने स्नेहिल आँचल मैं

sokhलिए तुमने

एक अंकुर थी मैं

स्नेह, ममता

से सींच कर मुझे

छाया भेरा तरु

banayaa

ज़िंदगी

भेर मेरा मनोबल

बढाया

हर विषम परिस्थिति मैं

मुझ को समझाया

वो बेल कभी न होना तुम

जो परवान चढ़े

दूसरों के सहारे

अपना सहारा ख़ुद बनना

है तुम्हे,ताकि परवान चढा

सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे




पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना

दिल मैं ही रह गयी

तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन

सार्थकता से बिताया था

कभी किसी

के आगे

सेर न झुकाया था

जिस शान से जी थी

उसी शान से दुनिया छोड़ चली

हाँ, मैं ही भूल गयीथी

उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना

कभी नही होता गवारा

जो हर हाल मैं

देते रहे हो सहारा















ज़िन्दगी और

मौत के बीच

zindagi से lachaar

से पड़ी थी तुम

मन ही मन तब चाहा था मैंने

की आज तक तुम मेरी माँ थी

आज मेरी बेटी बन जाओ

अपने आँचल की छाओं मैं

लेकर करूं तुम्हारा दुलार

अनगिनत

mannaten

खुदा से कर

मांगी थी तुम्हारी जान की खैर




बरसों तुमने मुझे

पाला पोसा और संवारा

सुख सुविधा ने

जब कभी भी किया

मुझ से किनारा

रातों के नींद

दिन का चैन

सभी कुछ मुझ पे वारा

मेरी आँखों मैं गेर कभी

दो आँसू भी उभरे

अपने स्नेहिल आँचल मैं

sokhलिए तुमने

एक अंकुर थी मैं

स्नेह, ममता

से सींच कर मुझे

छाया भेरा तरु

banayaa

ज़िंदगी

भेर मेरा मनोबल

बढाया

हर विषम परिस्थिति मैं

मुझ को समझाया

वो बेल कभी न होना तुम

जो परवान चढ़े

दूसरों के सहारे

अपना सहारा ख़ुद बनना

है तुम्हे,ताकि परवान चढा

सको उन्हें जो हैं तुम्हारे सहारे




पैर तुम्हे सहारा देने की तमन्ना

दिल मैं ही रह गयी

तुम ,हाँ, तुम जिसने सारा जीवन

सार्थकता से बिताया था

कभी किसी

के आगे

सेर न झुकाया था

जिस शान से जी थी

उसी शान से दुनिया छोड़ चली

हाँ, मैं ही भूल गयीथी

उन्हें बैसाखियों के सहारे चलना

कभी नही होता गवारा

जो हर हाल मैं

देते रहे हो सहारा

Sunday, March 7, 2010

hum zindagi se kya chahte hain

हम जिंदगी से क्या चाहते हैं

हम खुद नहीं जानते
हम जिंदगी से क्या चाहते हैं
कुछ कर गुजरने की चाहत मन में लिए
अधूरी चाहतों में जिए जाते हैं

उभरती हैं जब मन में
लीक से हटकर ,कुछ कर गुजरने की चाह
संस्कारों की लोरी दे कर
उस चाहत को सुलाए जाते हैं

सुनहली धुप से भरा आसमान सामने हैं
मन के बंद अँधेरे कमरे में सिमटे जाते हैं

चाहते हैं ज़िन्दगी में सागर सा विस्तार
हकीकत में कूप दादुर सा जिए जाते हैं

चाहते हैं ज़िन्दगी में दरिया सी रवानी
और अश्क आँखों में जज़्ब किये जाते हैं

चाहते हैं जीत लें ज़िन्दगी की दौड़
और बैसाखियों के सहारे चले जाते हैं

कुछ कर गुजरने की चाहत
कुछ न कर पाने की कसक
अजीब कशमकश में
ज़िंदगी जिए जाते हैं

हम खुद नहीं जानते
हम ज़िन्दगी से क्या चाहते हैं

Friday, March 5, 2010

zindagi ki kitaab se { Dedicated To Cancer Patients}

ज़िन्दगी की किताब से
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ज़िन्दगी की किताब से
फट जाता है जब
कोई अहम पन्ना
अधूरी रह जाती है
जीने की तमन्ना

कभ कभी बागबान से
हो जाती है नादानी
तोड़ देता है ऐसे फूल को
जिसके टूटने से
सिर्फ शाख ही नहीं
छा जाती है
सारे चमन में वीरानी
रह जाता है मुरझाया पौधा
सीने में छुपाये
दर्द की कहानी

जिस पौध को पानी की बजाए
सींचना पड़ता हो
अश्कों ओर नए खून से
उस दर्द के पौधे का
अंजाम क्या होगा

अंजाम की फ़िक्र में
प्रयास तो नहीं छोड़ा जाता
मौत के बड़ते कदमों की
आहट से डर
जीने की राह से मुहँ
मोड़ा नहीं जाता
जब तक सांस
तब तक आस

गिने चुने पलों को
जी भर जीने का मोह
पल पल में
सदियाँ जी लेने की चाह
ज़िन्दगी में भर देता
इतनी महक सब ओर
विश्वास ही नहीं होता
कैसे टूट जाएगी यह डोर

दर्द के पौधे पर
अपनेपन के फूल खिलते हैं
यह फूल रहें या न रहें
इनकी यादों की खुशबू से
चमन महकते हैं
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कैंसर रोगी को समर्पित कविता
रजनी छाबड़ा 

Sunday, February 28, 2010

is andaaz se holi manayen

आइए ,इस अंदाज़ से होली मनाये
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आइए,इस अंदाज़ से होली मनाये
होली जलाएं दुर्गुणों की,
साम्प्रदायिकता की
संकीर्ण मानसिकता की

गत वर्षों में
बहुत उड़ायें हैं
मानवता के खून के छींटे
इस वर्ष,मिटे कर सब मलाल
लगायें सभी को
आत्मीयता से गुलाल
मिटा कर जात पात
अपने पराये का ख्याल
लगायें सभी को आत्मीयता से गुलाल
खुशियों के रंग में रंगे जीवन
सभी रहे सदा खुशहाल
रजनी छाबरा.

Saturday, February 27, 2010

indradhanush

मेरी
ज़िन्दगी के आकाश पे
 इन्द्रधनुष   सा
उभरे तुम

नील गगन सा विस्तृत
तुम्हारा प्रेम
तन मन को पुलकित
हरा  भरा  कर देता

खरे सोने सा सच्चा
तुम्हारा प्रेम
जीवन
रंग देता

तुम्हारे
स्नेह की
पीली ,सुनहली
धूप   मैं

नारंगी सपनों का
ताना बाना बुनते
संग तुम्हारे पाया
जीवन मैं
प्रेम की लालिमा
 सा विस्तार
 इंद्रधनुषी
सपनो से
सजा
संवरा
अपना संसार

बाद
तुम्हारे
इन्द्रधनुष  के और
रंग खो गए
बस, बैंजनी विषाद
की छाया
दूनी है
बिन तेरे ,
मेरी ज़िन्दगी
सूनी सूनी
है

रजनी छाबड़ा