Sunday, December 4, 2022

मन के बंद दरवाज़े

 मन के बंद दरवाज़े 

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इस से पहले कि

 अधूरेपन की कसक 

तुम्हें कर दे चूर-चूर

 ता-उम्र हँसने से कर दे मज़बूर 

खोल दो

 मन के बंद दरवाज़े 

और घुटन को

 कर दो दूर 

दर्द तो हर दिल में बसता है

 दर्द से सबका पुश्तैनी रिश्ता है 

कुछ अपनी कहो 

कुछ उनकी सुनो 

दर्द को सब मिलजुल कर सहो

 इस से पहले कि दर्द

 रिसते-रिसते बन जाए नासूर 

लगाकर हमदर्दी का मरहम 

करो दर्द को कोसों दूर

 बाँट लो

 सुख-दुःख को 

मन को, जीवन को 

स्नेहामृत से कर लो भरपूर 

खोल दो मन के बंद दरवाजे 

और घुटन को कर दो दूर 



Sunday, October 30, 2022

'बात सिर्फ इतनी सी' : हिंदी काव्य-संग्रह


बात सिर्फ इतनी सी

सपनों का वितान और यादों का बिछौना/ नहीं रहता इनसे अछूता/ मन का कोई भी कोना/

जीवन की छोटी छोटी खुशियाँ और यादों के मधुबन हमारी अमूल्य निधि हैं/ रिश्तों की गरिमा, अपनों का सानिध्य, अस्तित्व की पहचान और सौहार्द पूर्ण सह-अस्तित्व यही तो ताने -बाने हैं हमारे सामाजिक परिवेश के/ यदि यही सामजिक ताना -बाना तार-तार होने के कगार पर हो, कवि का संवेदनशील मन अछूता कैसे रह पायेगा/ यही अनुभूतियाँ कलमबद्ध करने का प्रयास किया है, अपनी काव्य-कृति 'बात सिर्फ इतनी सी' के माध्यम से/

बचपन से लेकर उम्र के आख़िरी पड़ाव तक का सफर, बहुआयामी चिंताएं, अन्याय, उत्पीड़न, नगरीकरण का दबाव, अपनी माटी की महक, जीवन मूल्यों के प्रति निष्ठा, संस्कारों के प्रति आस्था, अबोले बोल और आकुलता ऐन्द्रिय धरातल पर कुछ बिम्ब बनाते हैं/ इन्हे शब्दों का रूप दे कर उकेरा है/

जो दूसरों के दर्द को

निजता से जीता है

भावनाओं और संवेदनाओं को

शब्दों में पिरोता है

वही कवि कहलाता है

यही दायित्व निभाने की कोशिश की है, अपनी रचनाओं के माध्यम से/ इन कविताओं का मूल्यांकन मैं अपने सुधि पाठकों पर छोड़ती हूँ/ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी/

रजनी छाबड़ा
बहु-भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका

अद्भुत काव्य संग्रह : बात सिर्फ़ इतनी सी :साहित्य भूषण आचार्य मूसा खान अशान्त बाराबंकवी


 



अद्भुत  काव्य संग्रह

       ' बात सिर्फ़ इतनी सी'  ये आज के समय की सुप्रसिद्ध कवयित्री,अनुवादिका और अंकशास्त्रीं  रजनी छाबड़ा जी की 60 कविताओं का सँग्रह है। सभी कविताएं एक से बढ़कर एक हैं । साँझ के अँधेरे में, दीवार,खामोशी, अधूरी आरज़ू,ये कैसा सिलसिला आदि सभी कविताओं में कवयित्री ने जीवन के विभिन्न पहलुओं को बहुत ही दार्शनिकता पूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

     मुझे आशा ही नही अपितु आदमक़द विश्वास है कि इस काव्य सँग्रह की रचनाओं को काव्य प्रेमियों द्वारा भरपूर प्यार मिलेगा क्योंकि इसकी भाषा तो सरल, सहज तथा बोधगम्य होने के साथ प्रभावशाली है। रजनी छाबड़ा जी  ने निस्संदेह बहुत श्रम किया है, मैं इस काव्य सँग्रह के अवतारणा के लिए उन्हें बधाई देता हूँ।

   आशा है, उनकी यह नव्यतम कृति *' बात सिर्फ़ इतनी सी '* अक्षय कीर्ति अर्जित कर विश्व हिंदी काव्य जनमानस में प्रतिष्ठित होगी।

                 शुभकामनाओं सहित

  (साहित्य भूषण आचार्य मूसा खान अशान्त बाराबंकवी  )

     7376255606

Sunday, October 23, 2022


 मेरी दीवाली
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तम्मनाओं की लौ से
रोशन किया
एक चिराग
तेरे नाम का


लाखों चिराग
तेरी यादों के
ख़ुद बखुद
झिलमिला उठे



पहचान 

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अंधकार को

अपने दामन में समेटे
ज्यों दीप बनाता है

अपनी रोशन पहचान


यूं ही तुम
अश्क़ समेटे रहो
खुद में 

दुनिया को दो

सिर्फ मुस्कान 

 

अपनी अनाम  

ज़िन्दगी को  

यूं दो एक नयी पहचान

 

 जीना बस इस अंदाज़ से 

 गुमनामी के अँधेरे चीर

 बन जाओ ज़िंदगी की शान  

 

रजनी छाबड़ा 

Tuesday, October 18, 2022

प्रस्तावना :बात सिर्फ इतनी सी



 प्रस्तावना : बात सिर्फ इतनी सी 

सपनों का वितान और यादों का बिछौना/ नहीं रहता इनसे अछूता/ मन का कोई भी कोना/  

जीवन की छोटी छोटी खुशियाँ और यादों के मधुबन हमारी अमूल्य निधि हैं/ रिश्तों की गरिमा, अपनों का सानिध्य, अस्तित्व की पहचान और सौहार्द पूर्ण  सह-अस्तित्व यही तो ताने -बाने हैं हमारे सामाजिक परिवेश के/ यदि यही सामजिक ताना -बाना तार-तार होने के कगार पर हो, कवि का संवेदनशील मन अछूता कैसे रह पायेगा/ यही अनुभूतियाँ कलमबद्ध करने का प्रयास किया है, अपनी काव्य-कृति 'बात सिर्फ इतनी सी' के माध्यम से/

बचपन से लेकर उम्र के आख़िरी पड़ाव तक का सफर, बहुआयामी चिंताएं, अन्याय, उत्पीड़न, नगरीकरण का दबाव, अपनी माटी की महक, जीवन मूल्यों के प्रति निष्ठा, संस्कारों के प्रति आस्था, अबोले बोल और आकुलता ऐन्द्रिय धरातल पर कुछ बिम्ब बनाते  हैं/ इन्हे शब्दों का रूप दे कर उकेरा है/ 

जो दूसरों के दर्द को 

निजता से जीता है 

भावनाओं और संवेदनाओं को 

शब्दों में पिरोता है 

वही कवि कहलाता है 

यही दायित्व निभाने की कोशिश की है, अपनी रचनाओं के माध्यम से/ इन कविताओं का मूल्यांकन मैं अपने सुधि पाठकों पर छोड़ती हूँ/ आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी/

रजनी छाबड़ा 
बहु-भाषीय कवयित्री व् अनुवादिका 

विश्वास के धागे

 

  



  विश्वास के धागे

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    विश्वास के धागे

    सौंपे हैं तुम्हारे हाथ

 कुछ उलझ से गए है

 सुलझा देना मेरे पालनहार

 तुम तो हो सुलझे हुए कलाकार 

पर इन दिनों वक़्त ही नहीं मिलता तुम्हें 

बहुत उलझ गए हो सुलझाने में

 दुनिया की उलझने बेशुमार 

मेरे लिए भी थोड़ी फुर्सत निकालो ना 

टूटे नहीं विश्वास मेरा

 तुम्हीं कोई राह निकालो ना

 कहते हैं दुनिया वाले 

खड़ी हूँ ज़िंदगी और मौत की सरहद पर

 तुम्हीं हौले-हौले ज़िंदगी की ओर सरका दो ना 

ज़िंदगी हमेशा हसीन लगी हैं मुझे

 लिए यही खुशगवार एहसास 

रहने देना अपनों के संग 

क्या अब भी कर लूँ तुम पर यह विश्वास ?

Thursday, October 13, 2022

पर्यावरण

 पर्यावरण 

*********

कहाँ गए वो दिन

जब नदियाँ  दायिनी थी 

हवाएँ शीतल, सुगन्धित, सुवासिनी थी 

सुकून दिया करती थी तन -मन को हरियाली 

वन-उपवन गया करती  कोयल मतवाली 

बटोही सुस्ताया करते थे वृक्षों की शीतल छाँव में 

खुशहाली छाई  रहती थी शहर और गॉव में 


अब तो प्रदूषित हुआ नदी का जल 

कारखानों की चिमनियाँ धुंआ उगलती अविरल 

शहरीकरण की दौड़ में कटने लगे अंधाधुंध जंगल 

कोयल की कूक दबा गए, लाउड स्पीकरों के दंगल 


इस से पहले की आने वाली पीढ़ी 

शुद्ध  वायु,  शुद्ध जल , वन- उपवन के लिए तरसे 

वनों के अभाव में बदली 

निकल जाए बिन बरसे 

हमें फिर से, जी जान से ,उचित पर्यावरण जुटाना होगा 

वन सरंक्षण का व्यापक आंदोलन चलाना होगा 

(

पर प्रदूषण क्या सिर्फ भौतिक स्तर पर ही है ; आज मानसिक प्रदूषण भी कुछ कम नहीं )


धर्म और सदाचार का स्थान ले चुके हैं 

उग्रवाद, कट्टरवादिता और अनाचार 

कहां गए वो सात्विकता , सहनशीलता , सहकारिता के भंडार 

कहांगए वो दिन, जब एक दूजे के दुःख में 

जान देने को हम रहते थे तैयार 

निष्पक्षता का स्थान ले चुका है  भ्र्ष्टाचार 

मन के आवरण  है चहुँ ओर अन्धकार 


ऐसे भौतिक और मानसिक प्रदूषण से घिरे 

हम कब  तक स्वस्थ रह पाएंगे 

पर परेशानी से उबारने के लिए 

आसमाँ से कोई फ़रिश्ते तो न आएँगे 

हमें  ही जी जान  से उचित पर्यावरण जुटाना होगा 

सोयी हुई मानसिकता  को जगाना होगा 

भावी पीढ़ी को फिर से सहनशीलता, सहकारिता

 सात्विकता , धर्मनिरपेक्षता का पाठ  पढ़ाना होगा 

ज्ञान के  प्रकाश से ,  मन पर छाया अन्धकार मिटाना होगा 

भौतिक ही नहीं, मानसिक पर्यावरण में भी 

समूचा बदलाव लाना होगा /


रजनी छाबड़ा 

5 /6 /2005