वक़्त कहीं खो गया है
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ज़िन्दगी की उलझनों में
आज का इंसान
इतना व्यस्त हो गया है
उसका ख़ुद का वक़्त
कहीं खो गया है
तीन झलकियाँ
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१. बच्चों की दिनचर्या
"माँ , सुबह साढ़े चार बजे का अलार्म लगाना है
मुझे टेस्ट की तैयारी कर स्कूल जाना है"/
पढ़ के, नहा धोकर , होकर तैय्यार
घड़ी देखते हुए, दूध का गिलास , हलक से उतारते हैं
बस्ते के बोझ से दोहरी हो रही कमर
फिर भी, बस न छूट जाएँ कहीं
एक क़दम में दो कदम का फ़ासला नापते हैं
दिनभर स्कूल में पढ़ाई में उलझे , वापसी पर
साथ में ढेर सा होमवर्क लाते हैं
अभी ट्यूटर के पास भी जाना है
साथ ही साथ,स्कूल से मिला
प्रोजेक्ट वर्क भी सिरे चढ़ाना है
रात को टी वी सीरियल देखते हुए
दो कौर खाना गले से उतारते हैं
उनींदी आँखों से ,सब होमवर्क निपटाते हुए
पेन हाथ में लिए , कॉपी पर सिर रखे
पता ही नहीं कब आँख लग जाती है
माँ दुलारते हुए उठाती है
लाड़ले को बिस्तर तक पहुँचाती है
२. कामकाजी महिला की दिनचर्या
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सुबह बच्चों को भारी बस्ते और टिफ़िन से
लादकर स्कूल रवाना करती ममतामयी नारी
चूल्हे-चौके में खपती , पति को दफ्तर भेज
आनन -फानन करती खुद दफ्तर जाने की तैय्यारी
दफ़्तर ग़र बस से जाती है, सफर में
समय का सदुपयोग करने को स्वेटर बुनती जाती
या फिर घरमें न कर पायी इष्ट -देवता का ध्यान
बस में ही करती जाती ईश-स्मरण बिन व्यवधान
आफिस में सिर उठाने की फुर्सत नहीं
फाइलों के जमा-घटा के आंकड़ों में
उलझ गया है ज़िंदगी का गणित
ज़िंदगी में अब पहले सी लज़्ज़त नहीं
घर पहुँच कर बच्चों को होमवर्क कराना है
फिर से चूल्हे चौके में ख़ुद को खपाना है
परिवार की फरमाईशें पूरी करते करते
कल की चिंता करते हुए सो जाना है
मनचाहे कुछ
इस पूरे वक़्त में, बस एक ही तो वक़्त उसका है
आफिस से घर तक की वापिसी का सफर
जब वह छोड़ देती हैं खुले ,अपने दिमाग के ख़्याली घोड़े
सोचती है जब वक़्त मिलेगा उसे
बिताएगी मनचाहे कुछ दिन थोड़े
पर वक़्त है कि मिलता ही नहीं
शिकायत करे भी तो किससे ,वह बेचारी
अपने इर्द-गिर्द व्यवसतता के ताने बाने बुनती
ख़ुद अपने ही जाल में, मकड़ी सम उलझी नारी/
3. पति महोदय की दिनचर्या
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सुबह बीवी बच्चों को पढ़ाने में व्यस्त है
वहीँ से आवाज़ देती है
" अजी, अब उठे हैं आप
अपने साथ साथ एक कप चाय
मेरे लिए भी बनाते लाईये
आज महरी भी तो नहीं आयी
बाकी काम मैं करती हूँ
आप खाना बनाने में हाथ बँटवाइये "
अपने अपने टिफ़िन और चाभी के गुच्छे समेटते
बीवी को उसके ऑफिस तक लिफ्ट देते
पहुंचते हैं श्रीमान ऑफिस में
दिन भर काम में उलझे रहने के बाद
राह का धुंआ निगलते , पहुँचते हैं घर पर
बीवी थकी हुई , शुष्क मुस्कान के साथ
पिलाती है एक कप चाय और
उलझ जाती है रसोई में
थमाकर उसके हाथ
एक अदद थैला ,सौदा सुल्फ लाने को
कभी जिद कर के, दिलवाती है छुट्टी
आज पोलियो की दवा पीने जाएगी बिट्टी
कभी करती है राशन की कतार में
खड़े रहने को तैय्यार
कभी थमा देती है बिजली पानी
फ़ोन का बिल, कर के मनुहार
पढ़ते हैं श्रीमान शाम की फुर्सत में
सुबह का बासी अख़बार
कुछ टी वी से जानते हैं
दुनिया की खैर ख़बर
सब मुलाकातें, दुनियादारी छोड़ देते हैं
आने वाले रविवार पर
फिर रविवार को मेहमान-नवाज़ी में
और परिवार की फरमाइशों में उलझ जाते हैं
घूमने-फिरने, आराम करने की
फुर्सत ही कहाँ पाते हैं /
ज़िंदगी की उलझनों में
आज का इंसान, इतना व्यस्त हो गया है
उसका खुद का वक़्त कहीं खो गया है /
रजनी छाबड़ा
12/12/2004